भगवान से संबंधित रोचक तथ्य(27)

सुश्रुत संहिता के अनुसार, भगवान धन्वंतरि ने भगवान विष्णु के निर्देश पर काशी नरेश धन्वराज के घर पुत्र रूप में जन्म लिया, जिन्हें ‘धन्वंतरि द्वितीय’ कहा गया। काशी नरेश दिवोदास जी को धन्वंतरि का अवतार माना जाता है। सुश्रुत संहिता में उनके उपदेश का उल्लेख मिलता है, जिसमें वे अपने शिष्यों से कहते हैं—"मैं आदिदेव धन्वंतरि हूँ, जो देवताओं की वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु को हरने वाला हूँ। मैंने अष्टांग आयुर्वेद के विशेष अंग ‘शल्य चिकित्सा’ का ज्ञान देने के लिए अवतार लिया है।” यही धन्वंतरि द्वितीय आगे चलकर काशी के राजा दिवोदास बने और उन्होंने आयुर्वेद का विस्तार किया।

सुश्रुत संहिता के अनुसार, भगवान धन्वंतरि ने भगवान विष्णु के निर्देश पर काशी नरेश धन्वराज के घर पुत्र रूप में जन्म लिया, जिन्हें ‘धन्वंतरि द्वितीय’ कहा गया। काशी नरेश दिवोदास जी को धन्वंतरि का अवतार माना जाता है। सुश्रुत संहिता में उनके उपदेश का उल्लेख मिलता है, जिसमें वे अपने शिष्यों से कहते हैं—"मैं आदिदेव धन्वंतरि हूँ, जो देवताओं की वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु को हरने वाला हूँ। मैंने अष्टांग आयुर्वेद के विशेष अंग ‘शल्य चिकित्सा’ का ज्ञान देने के लिए अवतार लिया है।” यही धन्वंतरि द्वितीय आगे चलकर काशी के राजा दिवोदास बने और उन्होंने आयुर्वेद का विस्तार किया।

भगवान शिव और माँ पार्वती के विवाह के समय भगवान श्री विष्णु नें शिवजी का वर्णन करते हुये कर्पूरगौरम् करुणावतारं मन्त्र का गायन किया था, इस मन्त्र द्वारा मृत्युलोक के देवता और भयंकर स्वरुप वाले भगवान शिव के दिव्य सौम्य स्वरुप का वर्णन किया गया है। इस स्तुति में बताया गया है कि भगवान शिव कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, वह करुणा के अवतार हैं और समस्त संसार के अधिपति हैं, सर्पों का हार धारण करने वाले भगवान शिव और माँ पार्वती भक्तों के ह्रदय में सदैव निवास करते हैं।

भगवान शिव और माँ पार्वती के विवाह के समय भगवान श्री विष्णु नें शिवजी का वर्णन करते हुये कर्पूरगौरम् करुणावतारं मन्त्र का गायन किया था, इस मन्त्र द्वारा मृत्युलोक के देवता और भयंकर स्वरुप वाले भगवान शिव के दिव्य सौम्य स्वरुप का वर्णन किया गया है। इस स्तुति में बताया गया है कि भगवान शिव कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, वह करुणा के अवतार हैं और समस्त संसार के अधिपति हैं, सर्पों का हार धारण करने वाले भगवान शिव और माँ पार्वती भक्तों के ह्रदय में सदैव निवास करते हैं।

दक्षिण भारत में भैरव को ‘शास्ता’ के नाम से और महाराष्ट्र में ‘खंडोबा’ के रूप में पूजा जाता है। भैरव जी के प्रमुख मंदिरों में काशी का कालभैरव मंदिर और उज्जैन का बटुक-भैरव मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा, उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में नैनीताल के निकट घोड़ाखाल में स्थित बटुक-भैरव मंदिर, जिन्हें ‘गोलू देवता’ के नाम से जाना जाता है, अत्यधिक विख्यात हैं।

दक्षिण भारत में भैरव को ‘शास्ता’ के नाम से और महाराष्ट्र में ‘खंडोबा’ के रूप में पूजा जाता है। भैरव जी के प्रमुख मंदिरों में काशी का कालभैरव मंदिर और उज्जैन का बटुक-भैरव मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा, उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में नैनीताल के निकट घोड़ाखाल में स्थित बटुक-भैरव मंदिर, जिन्हें ‘गोलू देवता’ के नाम से जाना जाता है, अत्यधिक विख्यात हैं।

7000-1300 ईस्वी पूर्व मोहनजोदड़ो में मिली मोहरों में योगमुद्रा में बैठी एक आकृति देखी गयी जिसके घुटने फैले हुए है लेकिन पाँव आपस में मिले हुए है। इस प्रक्रिया को योग में मुलबंध आसन कहा जाता है, मुद्रा में बनी यह आकृति पशुओ से घिरी हुई है विद्वानों के अनुसार यह चित्र भगवान शिव के पशुपति नाथ स्वरुप का है।

7000-1300 ईस्वी पूर्व मोहनजोदड़ो में मिली मोहरों में योगमुद्रा में बैठी एक आकृति देखी गयी जिसके घुटने फैले हुए है लेकिन पाँव आपस में मिले हुए है। इस प्रक्रिया को योग में मुलबंध आसन कहा जाता है, मुद्रा में बनी यह आकृति पशुओ से घिरी हुई है विद्वानों के अनुसार यह चित्र भगवान शिव के पशुपति नाथ स्वरुप का है।

 ‘भैरव’ शब्द चार अक्षरों से बना है—‘भा’, ‘ऐ’, ‘र’ और ‘व’। इनका अर्थ क्रमशः प्रकाश, क्रिया-शक्ति, विमर्श और व्यापकता से जुड़ा हुआ है। भैरव को वह शक्ति माना जाता है, जो समस्त ब्रह्मांड को अपने स्वरूप में एकीकृत कर अपने भक्तों को भय से मुक्त करती है। इसलिए उन्हें ‘भैरव’ कहा जाता है।

‘भैरव’ शब्द चार अक्षरों से बना है—‘भा’, ‘ऐ’, ‘र’ और ‘व’। इनका अर्थ क्रमशः प्रकाश, क्रिया-शक्ति, विमर्श और व्यापकता से जुड़ा हुआ है। भैरव को वह शक्ति माना जाता है, जो समस्त ब्रह्मांड को अपने स्वरूप में एकीकृत कर अपने भक्तों को भय से मुक्त करती है। इसलिए उन्हें ‘भैरव’ कहा जाता है।

शिव जी कपाल तथा खप्पर धारण करते हैं, चिता-भस्म का अपने शरीर में लेप करते हैं, वास्तव में संहार तथा विघटन से सम्बंधित वस्तुओं के स्वामी शिवजी ही हैं। प्रत्येक वस्तु जिसका त्याग किया जाता हैं तथा जिसका सम्बन्ध भविष्य में विघटन से हैं, उनके स्वामी शिव जी ही हैं।

शिव जी कपाल तथा खप्पर धारण करते हैं, चिता-भस्म का अपने शरीर में लेप करते हैं, वास्तव में संहार तथा विघटन से सम्बंधित वस्तुओं के स्वामी शिवजी ही हैं। प्रत्येक वस्तु जिसका त्याग किया जाता हैं तथा जिसका सम्बन्ध भविष्य में विघटन से हैं, उनके स्वामी शिव जी ही हैं।

सतयुग में सभी पर्वतों के पंख हुआ करते थे, एक बार इन्द्रदेव के यज्ञ में विघ्न पड़ने के कारण इन्द्रदेव ने सभी पर्वतों के पंखों को काट दिया था। श्री हनुमान जी के पिता वायुदेव ने पर्वतों के राजा मैनाक की रक्षा की थी, यही मैनाक पर्वत आखिरी पंखधारी पर्वत हैं। समुन्द्र लांघ कर जब हनुमान जी लंका जा रहे थे, तब इन्हीं मैनाक पर्वत ने हनुमान जी से विश्राम करने की विनती की थी।

सतयुग में सभी पर्वतों के पंख हुआ करते थे, एक बार इन्द्रदेव के यज्ञ में विघ्न पड़ने के कारण इन्द्रदेव ने सभी पर्वतों के पंखों को काट दिया था। श्री हनुमान जी के पिता वायुदेव ने पर्वतों के राजा मैनाक की रक्षा की थी, यही मैनाक पर्वत आखिरी पंखधारी पर्वत हैं। समुन्द्र लांघ कर जब हनुमान जी लंका जा रहे थे, तब इन्हीं मैनाक पर्वत ने हनुमान जी से विश्राम करने की विनती की थी।

ब्रह्माण्ड पुराण एवं वायु पुराण के अनुसार अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व और वशित्व अष्ट सिद्धियां दुनिया में सबसे बड़ी ताक़त मानी जाती है, यह सभी सिद्धियाँ केवल हनुमान जी के पास ही हैं और इन्हें संभालने की शक्ति भी केवल महाबली हनुमान में ही है। श्रीराम भक्त हनुमान को इन आठ सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान मां जानकी ने दिया है।

ब्रह्माण्ड पुराण एवं वायु पुराण के अनुसार अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व और वशित्व अष्ट सिद्धियां दुनिया में सबसे बड़ी ताक़त मानी जाती है, यह सभी सिद्धियाँ केवल हनुमान जी के पास ही हैं और इन्हें संभालने की शक्ति भी केवल महाबली हनुमान में ही है। श्रीराम भक्त हनुमान को इन आठ सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान मां जानकी ने दिया है।

गोस्वामी तुलसीदासजी अपने अंतिम दिनों तक वाराणसी में ही रहे, यहां उन्हीं के नाम का एक घाट भी है, जिसे तुलसी घाट कहा जाता है। यहीं रहकर तुलसीदासजी ने एक हनुमान मंदिर भी बनाया था जिसका नाम है श्री संकटमोचन मंदिर।

गोस्वामी तुलसीदासजी अपने अंतिम दिनों तक वाराणसी में ही रहे, यहां उन्हीं के नाम का एक घाट भी है, जिसे तुलसी घाट कहा जाता है। यहीं रहकर तुलसीदासजी ने एक हनुमान मंदिर भी बनाया था जिसका नाम है श्री संकटमोचन मंदिर।

गोस्वामी तुलसीदास जी को श्रीराम-सीता, लक्ष्मणजी, शिव-पार्वती के साक्षात दर्शन प्राप्त हुए थे, बनारस के संकट मोचन मंदिर में श्री बजरंगबली साक्षात प्रगट हुए थे और यही गंगा के किनारे तुलसीदास जी को श्री हनुमान जी ने साक्षात दर्शन दिए थे।

गोस्वामी तुलसीदास जी को श्रीराम-सीता, लक्ष्मणजी, शिव-पार्वती के साक्षात दर्शन प्राप्त हुए थे, बनारस के संकट मोचन मंदिर में श्री बजरंगबली साक्षात प्रगट हुए थे और यही गंगा के किनारे तुलसीदास जी को श्री हनुमान जी ने साक्षात दर्शन दिए थे।

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