
आदि काल से मनुष्य धन से सम्पन्न होने हेतु एवं अपने धन की रक्षा हेतु, यक्षों की आराधना करते हैं, भिन्न-भिन्न यक्षों की प्राचीन पाषाण प्रतिमायें भारत के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं, जो खुदाई से प्राप्त हुई हैं। तंत्र-ग्रंथों में यक्षिणी तथा यक्ष साधना से सम्बंधित विस्तृत विवरण प्राप्त होते हैं।

नदी किनारे या श्मशान स्थित बिल्व वृक्ष के निचे, चांडाल के मृत देह के ऊपर बैठकर, उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होने वाली नदी को वीर साधना में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बताया गया हैं। वीरों के विषय में सर्वप्रथम पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है, वहां इनकी संख्या 52 बताई गई है। इन्हें भैरवी के अनुयायी या भैरव का गण कहा गया है।

सुश्रुत संहिता के अनुसार, भगवान धन्वंतरि ने भगवान विष्णु के निर्देश पर काशी नरेश धन्वराज के घर पुत्र रूप में जन्म लिया, जिन्हें ‘धन्वंतरि द्वितीय’ कहा गया। काशी नरेश दिवोदास जी को धन्वंतरि का अवतार माना जाता है। सुश्रुत संहिता में उनके उपदेश का उल्लेख मिलता है, जिसमें वे अपने शिष्यों से कहते हैं—"मैं आदिदेव धन्वंतरि हूँ, जो देवताओं की वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु को हरने वाला हूँ। मैंने अष्टांग आयुर्वेद के विशेष अंग ‘शल्य चिकित्सा’ का ज्ञान देने के लिए अवतार लिया है।” यही धन्वंतरि द्वितीय आगे चलकर काशी के राजा दिवोदास बने और उन्होंने आयुर्वेद का विस्तार किया।